ईशनिंदा क़ानून: क्या पाकिस्तान बनने की राह पर है पंजाब?

पिछले तीन सालों के दौरान पंजाब में हुई धार्मिक ग्रंथों की बेअदबी की घटनाओं की जांच करने वाले रणजीत सिंह आयोग की रिपोर्ट आने के बाद भी कुछ मामले अनसुलझे हैं.

इन घटनाओं के सभी आरोपियों के ख़िलाफ़ ट्रायल भी शुरू नहीं हुआ है, किसी को सज़ा मिलने की ख़बर भी नहीं आई है. मगर जिस दिन आयोग की रिपोर्ट पर पंजाब विधानसभा में चर्चा हुई, उसी दिन वहां एक बिल पारित कर भारतीय दंड संहिता में धारा 295AA जोड़ी गई.

इस धारा के अनुसार श्री गुरु ग्रंथ साहिब, श्रीमद्भागवत गीता, पवित्र कुरान और पवित्र बाइबल से जुड़ी जनता की धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाने के इरादे से अगर कोई इन्हें नुकसान पहुंचाता है या इनकी बेअदबी करता है, तो उस व्यक्ति को आजीवन कारावास की सज़ा दी जाएगी.

पंजाब विधानसभा में पारित बिल को संविधान के धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत, संविधान के अनुच्छेद 19A में अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार और मानवाधिकार की कसौटी पर परखने की ज़रूरत है.

साथ ही इस बिल के क़ानून बनने पर इसके दुरुपयोग और सामाजिक व्यवहार में उत्पन्न होने वाले परिवर्तनों की परख करना भी ज़रूरी है ताकि हम एक निष्पक्ष राय बना सकें

असहमति लोकतंत्र का आधार है. संविधान के अनुच्छेद 19A में अभिव्यक्ति का मौलिक अधिकार दिया गया है.

मगर 1927 में भारतीय दंड संहिता में धारा 295A जोड़कर प्रावधान किया गया था कि यदि कोई जान-बूझकर और दुर्भावनापूर्ण इरादे से भारत के नागरिकों के किसी वर्ग की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाएगा या फिर उस वर्ग के धर्म या धार्मिक विश्वास का अपमान करेगा तो उसे 3 साल तक की सज़ा हो सकेगी.

क़ानून की पृष्ठभूमि

एक मैगज़ीन के संपादक रामजीलाल मोदी को इस धारा के तहत सज़ा हुई तो मामला सुप्रीम कोर्ट में गया और इस धारा की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई थी.

मगर 1961 में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 295A को संविधान के अनुच्छेद 19 (2) में बोलने की आज़ादी पर तर्कसंगत रोक लगाने के दायरे में मानते हुए संवैधानिक रूप से जायज़ ठहराया.

पंजाब में साल 2015 के दौरान धर्म ग्रंथों की बेअदबी की कई घटनाएं सामने आई थीं. तब उस संवैधानिक और क़ानूनी पृष्ठभूमि में पंजाब विधानसभा ने श्री गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी के लिए आजीवन कारावास का प्रावधान करने वाला बिल 2016 में पारित किया.

मगर उस बिल को राष्ट्रपति की सहमति नहीं मिल पाई. कहा गया कि किसी एक धर्म ग्रंथ को लेकर इस तरह का क़ानून बनाना भारत के संविधान के धर्मनिरपेक्ष सिद्धांत के ख़िलाफ़ है.

1927 में जब गिरफ़्तार हुआ एक लेखक

अब 2018 में पंजाब की कांग्रेस सरकार ने चार धर्म ग्रंथों की बेअदबी और उन्हें नुकसान पहुंचाने के अपराध में आजीवन कारावास का प्रावधान करने वाले बिल को पारित कर दिया गया है.

भारतीय दंड संहिता में धारा 295A जोड़े जाने की पृष्ठभूमि में 1927 में प्रकाशित हुई एक पुस्तक ‘रंगीला रसूल’ है. इसमें पैग़म्बर मोहम्मद के जीवन के बारे लिखा गया था.

इस पर धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने का आरोप लगाते हुए प्रकाशक के ख़िलाफ शिकायत हुई थी और उन्हें गिरफ़्तार भी कर लिया गया था.

लेकिन अप्रैल, 1929 में वो इस आधार पर मुकदमे में बरी हो गए कि धर्म का अपमान करने के ख़िलाफ़ कोई क़ानून नहीं था.

बाद में उस प्रकाशक की हत्या कर दी गई और हत्या करने वाले को बड़े सम्मान से नवाज़ा गया.

ईशनिंदा संबंधी क़ानून की मांग

उस समय धार्मिक भावनाओं का अपमान करने वाले को सजा देने के क़ानून बनाने की मांग उठी जिसके चलते ब्रिटिश सरकार ने भारतीय दंड संहिता में धारा 295A जोड़ दी.

1952 में गोरक्षक नामक एक पत्रिका में छपे लेख को लेकर नवंबर 1953 में उसके संपादक और प्रकाशक रामजीलाल मोदी को आईपीसी की धारा 295A के तहत 18 महीने की सज़ा सुनाई गई.

हाईकोर्ट ने भी जब रामजीलाल को दोषी माना तब उन्होंने इस फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी, साथ ही भारतीय दंड संहिता की धारा 295A की संवैधानिक वैधता पर भी सवाल उठाते हुए एक याचिका दायर कर दी.

दलील दी गई कि भारतीय दंड संहिता की धारा 295A संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (A) में दी गई बोलने और अभिव्यक्ति की आज़ादी का उल्लंघन करती है.

वो धारा संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के तहत लगाए जाने वाले तर्कसंगत प्रतिबंध के दायरे में नहीं आती है.

उस समय सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के तहत सामाजिक व्यवस्था के हित में अभिव्यक्ति की आज़ादी पर तर्कसंगत प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं. धार्मिक ठेस पहुंचाने के मामलों को लेकर समाज में शांति को ख़तरा होने की आशंका बनी रहती है.

पंजाब सरकार समाज को गुमराह कर रही है?

मगर पंजाब विधानसभा में पारित किए गए बिल के अनुसार धारा 295AA जोड़ कर कठोर क़ानून बनाए जाने को संविधान में दिए गए बोलने की आज़ादी के मौलिक अधिकार की भावना के विपरीत ही माना जाएगा क्योंकि कोई प्रतिबंध तभी लगाया जा सकता है जब उस समय की परिस्थितियों में उसको लागू करना टाला न जा सके.

साथ ही बोलने की आज़ादी और तर्कसंगत लगाई रोक के बीच संतुलन रहना चाहिए, जो इस बिल के प्रावधान से टूटता है. पंजाब के इस क़ानून से लगाई गई रोक को तर्कसंगत नहीं ठहराया जा सकता.

संविधान में ईशनिंदा का ज़िक्र तक नहीं किया गया है, लेकिन पंजाब सरकार सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने में असफल रहने पर सख्त क़ानून बना कर समाज को गुमराह करने के रास्ते पर चल रही है.

क्या ख़ास धार्मिक समूहों को खुश करने के लिए क़ानून बनाया गया

इतना ही नहीं धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के क़ानून का बनाया जाना समाज के धार्मिक वर्गों में एक तरह की उग्र भावना का माहौल उत्पन्न करता है. वैसे भी धारा 295A जहां धार्मिक भावना का अपमान जान-बूझकर, दुर्भावना से करने को अपराध मानती है, वहीं प्रस्तावित धारा 295AA धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाने की नीयत से की गई बेअदबी को अपराध मान लेती है.

अगर पंजाब विधानसभा में पारित किए गए कानून की समीक्षा इसके धर्मनिरपेक्ष होने के नज़रिए से की जाए तो एक क़ानून मात्र इसलिए धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सकता कि इसमें एक धर्म ग्रंथ की बजाय चार धर्म ग्रंथों को शामिल कर लिया गया है.

इसके दो कारण हैं. पहला, इन चार धर्म ग्रंथों के अलावा भी बौद्ध धर्म और जैन धर्म समेत अनेक धार्मिक संप्रदायों आदि के ग्रंथ भी हैं जिनमें नागरिकों का एक समूह आस्था रखता है. लेकिन उन्हें इस प्रावधान में शामिल नहीं किया गया है.

इस क़ानून का बनना धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के ख़िलाफ है. यह सही है कि भारत का संविधान हर नागरिक को अपने धर्म को मानने और प्रचार करने की छूट देता है, बशर्ते यह सार्वजनिक व्यवस्था और नैतिकता के अनुरूप हो.

दूसरा, जब राज्य का कोई धर्म नहीं है तब ऐसे क़ानून बनाना जो किसी धर्म को नुक्ताचीनी से बचाने की कोशिश करे, धर्मनिरपेक्षता बनाए रखने की कोशिश की नहीं बल्कि धार्मिक समूह को खुश रखने की चुनावी राजनीति ही है.

नए क़ानून के ख़तरे

संविधान किसी भी नागरिक को अपना धर्म मानने की छूट देता है, मगर अपने धर्म को मानना से किसी दूसरे द्वारा धर्म को लेकर किसी वाजिब आधार पर सवाल करने के अधिकार को नहीं छीना जा सकता.

पंजाब विधानसभा में पारित बिल में बेअदबी की परिभाषा नहीं दी गई है, इसलिए इस क़ानून का दुरुपयोग होने के ख़तरे बढ़ जाते हैं.

किसी क़ानून की अस्पष्टता भी उसको रद्द किए जाने का आधार हो सकती है.

सही है कि संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के तहत बोलने की आज़ादी पर सामाजिक व्यवस्था के हित में तर्कसंगत प्रतिबंध लगाया जा सकता है, लेकिन पंजाब विधानसभा द्वारा पारित बिल किसी नागरिक के बोलने की आज़ादी पर तर्कसंगत नहीं बल्कि साफ़ तौर पर गैरवाजिब प्रतिबंध लगाता है.

इस क़ानून के तहत यदि कोई वैज्ञानिक समझ को प्रचारित-प्रसारित करने वाला नागरिक, धर्म ग्रंथों के किसी विचार पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सवाल करता है तब भी इसे अपराध करने के मामले में फंसाया जा सकता है.

भारत ने संविधान के अनुच्छेद 51( ह) के अनुसार भारत के हर नागरिक का यह मौलिक कर्तव्य होगा कि वह वैज्ञानिक दृष्टिकोण और मानवता के आधार पर जांच और सुधार की भावना को विकसित करे.

वैज्ञानिक दृष्टिकोण के ख़िलाफ़

जब कोई नागरिक अपने मौलिक कर्तव्य का पालन करते हुए वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित जांच करने की विधि का विकास करेगा तब नए प्रावधान के आधार पर उसे यह कह दिया जाएगा कि अब वह किसी धर्म ग्रंथ की वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समीक्षा ना करे क्योंकि इस तरह की समीक्षा से जनता की धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाना समझा जा सकता है.

इस क़ानून का दुरुपयोग होने का ख़तरा लगातार बना रहेगा क्योंकि ना तो सार्वजनिक व्यवस्था के हित को स्पष्ट किया गया है और ना ही धर्म ग्रंथ की बेअदबी का अर्थ स्पष्ट हुआ है.

धर्म ग्रंथों की बेअदबी के सवाल पर धार्मिक आस्था पर चोट पहुंचाने के नाम पर भीड़ द्वारा अभियुक्त को तुरंत सज़ा देने से लेकर लिंचिंग किए जाने तक की घटनाएं सामने आई हैं.