बिहार: नितीश के समक्ष दरपेश चुनौतियां?

-निर्मल रानी-

इसी वर्ष अक्टूबर में बिहार विधान सभा के 243 सदस्यों के निर्वाचन हेतु होने वाले आम चुनावों के बादल मंडराने लगे हैं। कोरोना प्रकोप के चलते इन बादलों की गड़गड़ाहट वैसे तो अपने पूरे शबाब पर फ़िलहाल नहीं है परन्तु गत 7 जून को गृह मंत्री अमित शाह ने एक वर्चुअल रैली कर चुनावी बिगुल ज़रूर फूँक दिया है। हालांकि भारतीय जनता पार्टी ने इसे जन संवाद रैली का नाम दिया है। इसे ‘चुनावी रैली’ के नाम से संबोधित करने से इसलिए परहेज़ किया गया ताकि जनता के बीच यह सन्देश न जा सके कि देश के लोग तो कोरोना के प्रकोप से जूझ रहे हैं मगर इन्हें चुनाव प्रचार की पड़ी है। इसके बावजूद बिहार के लोगों से ‘जन संवाद’ स्थापित करने के लिए जिस समय का चयन किया गया और सरकार की उपलब्धियों का जिस तरह बखान किया गया उसे चुनावी शंखनाद के तौर पर ही देखा जा रहा है। ख़बरों के अनुसार इस अत्याधुनिक रैली को पूरे राज्य के लोगों को दिखाने अर्थात राज्य में ग्रामीण व पंचायत स्तर तक गृह मंत्री अमित शाह सहित अन्य नेताओं के भाषण को सुनाने वदिखाने के लिए बड़े आकार के ‘चीन निर्मित’ 72000 एल ई डी लगाए गए थे। ख़बर है कि ‘जन संवाद’ स्थापित करने की इस अत्याधुनिक प्रक्रिया में लगभग 144 करोड़ रूपये ख़र्च हुए हैं।

माना जा रहा है कि जिस तरह महागठबंधन ने राज्य में हुए 2015 के आम चुनावों के दौरान नितीश कुमार को मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित किया था उसी विश्वास के साथ आगामी चुनावों में भाजपा भी नितीश कुमार पर ही अपना विश्वास जताते हुए उन्हीं के नेतृत्व में चुनावी दांव खेलने जा रही है। ऐसा इसलिए भी है कि भाजपा के पास इस समय राज्य में व्यापक जनाधार रखने वाला कोई भी नेता नहीं है। सवाल यह है कि क्या नितीश कुमार भाजपा के विश्वास पर खरे उतर पाएंगे या नहीं? यह इस बात पर भी निर्भर करेगा कि क्या राज्य में नितीश कुमार की लोकप्रियता का ग्राफ़ अब भी वही है जो 2015 में हुए चुनावों के समय था? यह भी कि लॉक डाउन के दौरान बिहार के श्रमिकों की वापसी के समय नितीश द्वारा अपनाए गए रवैये का उनकी राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ेगा? और यह भी कि कोरोना महामारी के दौरान उन्होंने इससे निपटने में किस योग्यता का परिचय दिया? जहां तक सामान्य रूप से नितीश कुमार की लोकप्रियता का प्रश्न है तो उनकी ‘पल्टीबाज़ी ‘के बाद अर्थात महागठबंधन को छोड़ कर अचानक वे उस एन डी ए से हाथ मिला कर अपनी कुर्सी बरक़रार रखने में सफल हुए जिसके विरुद्ध बिहार की जनता ने उन्हीं के नेतृत्व में महागठबंधन को भरी बहुमत से जिताया था। उनके इस क़दम से निश्चित रूप से न केवल उनकी लोकप्रियता में कमी आई है बल्कि उनकी विश्वसनीयता भी घटी है।  

जहां तक विकास के ग्राफ़ का प्रश्न है तो इस समय लगभग पूरे राज्य में ख़ास तौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में न केवल सड़कों का बुरा हाल है बल्कि बिजली की आपूर्ति भी पहले जैसी नहीं रही है। राज्य के दूसरे शहरों की बात ही क्या करनी राजधानी पटना का ही इतना बुरा हाल है जिसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। अभी पिछले दिनों मानसून की एक दिन की शुरूआती बारिश में ही राजधानी पटना का आधे से अधिक शहरी क्षेत्र जलमग्न हो गया। इसमें राजेंद्र नगर का वह क्षेत्र भी शामिल है जो गत वर्ष भी डूब गया था। याद कीजिये गत वर्ष इसी इलाक़े से उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी व उनके परिवार को बाढ़ राहतकर्मियों ने सुरक्षित जगह पर पहुँचाया था। शहर के कई इलाक़ों में नाले बनाए जाने के मक़सद से गड्ढे खुदे हुए हैं। जो काम बरसात से पहले ख़त्म हो जाना चाहिए था वह अधूरा छोड़ दिया गया है। आगामी बारिश में जलमग्न होने से यही गड्ढे अदृश्य हो जाएंगे जिसमें इंसानों व जानवरों दोनों की जान को भरी ख़तरा हो सकता है। पूरी संभावना है कि गत वर्ष की भांति इस वर्ष भी राजधानी के बड़े हिस्से में नावें व बाढ़ राहत कर्मियों की किश्तियां चलती दिखाई देंगी। उधर जंक्शन स्टेशन के आस पास की गंदिगी का वह आलम है कि कभी भी भयंकर बीमारी फैल सकती है। ख़बर है कि गत 19 जून को पटना के जलमग्न होने की ख़बर सुनकर नितीश कुमार ने कई जलमग्न इलाक़ों का दौरा भी किया। उनका यह दौरा आगामी चुनावों से जोड़कर देखा जा रहा है। अन्यथा यदि कुछ समय पूर्व उन्होंने इस पर नज़र रखी होती तो शायद निर्माणाधीन नाले अब तक बन गए होते और बारिश के पानी के निकलने का कुछ रास्ता साफ़ हो जाता। ज़ाहिर है चुनाव में जनता अपने इन दुखों का भी हिसाब ले सकती है। इसी तरह लॉक डाउन के दौरान बिहार के श्रमिकों की वापसी को लेकर भी नितीश की भूमिका श्रमिकों के पक्ष में होने के बजाए नकारात्मक ही रही। श्रमिकों को उम्मीद थी की नितीश उनकी वापसी के लिए कुछ ऐसे ही क़दम उठाएंगे जैसे झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने उठाए थे। परन्तु श्रमिकों को नितीश कुमार से निराशा ही हाथ लगी।

इसी प्रकार कोरोना महामारी से निपटने में भी नितीश सरकार स्वयं को सक्षम साबित नहीं कर सकी। राज्य के कोरोना मरीज़ों को देखने वाले अस्पतालों की बदहाली से लेकर मरीज़ों की टेस्टिंग तथा क्वारेंटीने सेंटर्स की घोर अनियमितताओं व असुविधाओं तक प्रत्येक स्तर पर सरकार ने अपनी असफलताओं का ही सुबूत दिया है। रही सही चुनौती का सामना भारत-नेपाल के मध्य बढ़ते तनाव के बीच बिहार से लगते नेपाल सीमा में कई जगहों पर आ रही हैं। ग़ौर तलब है कि बिहार के लगभग आधा दर्जन ज़िले नेपाली सीमा से मिलते हैं इनमें कई जगहों पर नदियां, तट बंध व बैराज भी हैं। प्रत्येक वर्ष मानसून की बारिश से पहले इन बांधों की मरम्मत की जाती है। इस बार नेपाल के रुकावट डालने के चलते उसके क्षेत्र में पड़ने वाले बांधों व बैराजों में मरम्मत नहीं हो पा रही है। नेपाल ने उस जगह पर रुकावट डाल दी है, जहां बांध की मरम्मत के लिए सामान रखा हुआ है। नेपाल सीतामढ़ी व चम्पारण जैसे कई ज़िलों में बाँध व बैराज के कामों में बाधा डाल रहा है। जिसका सीधा दुष्प्रभाव बाढ़ के रूप में बिहार की जनता पर पड़ेगा। इसकी जवाबदेही भी नितीश कुमार की ही होगी क्योंकि यह विषय केंद्र व राज्य दोनों ही सरकारों से जुड़ा है और जे डी यू दोनों ही जगह सत्ता की मुख्य साझीदार है। हालाँकि इस बीच एक सुखद समाचार यह भी आया है कि स्थिति की गंभीरता को देखते हुए पश्चिम चंपारण में नेपाल से भारतीय सीमा में प्रवेश करने वाली नारायणी गंडक नदी पर बने बांध की मरम्मत के लिए भारत व नेपाल के अधिकारियों के बीच गत 23 जून को एक सहमति भी बन गई है। इस सहमति के बाद बिहार के जल संसाधन विभाग के 50 मजदूरों का दल गंडक बांध की मरम्मत का काम करने के लिए नेपाल गया भी है। बहरहाल देखना होगा कि राज्य व्यापी भारी भरकम विज्ञापनों, वर्चुअल रैलियों, महागठबंधन में दरार डालने की कोशिशों और चुनाव पूर्व जोड़ तोड़ व दल बदल के प्रयासों को बढ़ावा देने के परिणाम स्वरूप नितीश कुमार अपने समक्ष दरपेश चुनौतियों का सामना करते हुए सत्ता में वापसी की राह पुनः हमवार कर पाएंगे या नहीं।