‘अर्बन नक्सल’ केस पर बंटे सुप्रीम कोर्ट के जज

माओवादियों से संबंध रखने के आरोप में गिरफ्तार किए गए कार्यकर्ताओं द्वारा खुद के बचाव में दी गई दलील पर बुधवार को सुप्रीम कोर्ट के जज बंटे नजर आए। सुनवाई के दौरान कार्यकर्ताओं की ओर से किए गए दावे और पुणे पुलिस के दावे पर बेंच के जजों ने अलग-अलग प्रतिक्रिया दी। मामले की सुनवाई कर रही सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों वाली बेंच में चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के अलावा जस्टिस ए.एम.खानविलकर और जस्टिस डी.वाई.चंद्रचूड़ शामिल हैं। गिरफ्तार किए गए वामपंथी कार्यकर्ताओं की ओर से दावा किया गया कि उनके खिलाफ फर्जी साक्ष्य पेश किए गए हैं और पुणे पुलिस जो दावा कर रही है कि उनके तार प्रतिबंधित सीबीआई (माओवादी) से जुड़े हैं, वह ठोस साक्ष्यों पर आधारित नहीं है। दूसरी ओर पुणे पुलिस ने दावा किया उनके पास पर्याप्त सबूत हैं कि कार्यकर्ताओं को देश में कानून-व्यवस्था की समस्या पैदा करने के लिए माओवादियों से फंड मिला।

कार्यकर्ताओं के अधिकार के पक्ष में

पुणे पुलिस की ओर से अडिशनल सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता पेश हुए थे। उन्होंने गिरफ्तार किए गए कार्यकर्ताओं-वरवरा राव, अरुण फेरिरा, वरनॉन गोंजालेव्स, सुधा भारद्वाज और गौतम नवलखा-का संबंध माओवादियों से दिखाने के संबंध में दस्तावेज पेश किए। ये दस्तावेज जब्त की गईं पेन ड्राइव, लैपटॉप और हार्ड डिस्क से कथित रूप से हासिल किए गए हैं। जब तुषार मेहता ने इन दस्तावेजों के माध्यम से कार्यकर्ताओं का संबंध माओवादियों से होने का दावा किया तो उस पर जस्टिस चंद्रचूड़ ने प्रतिक्रिया दी, ‘हम अनुमानों की वेदी पर आजादी की कुर्बानी नहीं दे सकते हैं।’

इस पर मेहता ने कहा कि दस्तावेजों के सिर्फ कुछ पेजों को देखकर ही नतीजे पर पहुंचना सही नहीं। इसके जवाब में जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा, ‘बेशक हमें जो भी दस्तावेज दिखाए जाएंगे उन पूरे दस्तावेज का अध्यययन करने के बाद हम कोई राय देंगे। हम साक्ष्यों को देखेंगे लेकिन बाज की नजर से।’

जस्टिस चंद्रचूड़ ने यह भी कहा, ‘हमें सरकार के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष और पीढ़ियों के अत्याचार के कारण समाज के एक वर्ग द्वारा असहमति की अभिव्यक्ति में फर्क करना चाहिए। कृपया साक्ष्य प्रस्तुत करते समय इस अंतर को ध्यान में रखिए। हम सभी का कंधा, चाहे सरकार हो या सुप्रीम कोर्ट’ इतना चौड़ा होना चाहिए जो आलोचनाओं और असहमति का बोझ उठा सके।

पुलिस के पक्ष में

जस्टिस चंद्रचूड़ की इस प्रतिक्रिया से प्रफुल्लित ऐडवोकेट प्रशांत भूषण ने मेहता को बीच में ही रोककर बोल उठे। उन्होंने कहा कि जिन पत्रों और दस्तावेजों का हवाला दिया जा रहा है, वे सभी ‘मनगढ़ंत’ साक्ष्य हैं। इस स्थान पर सीजीआई मिश्रा ने प्रशांत भूषण को कहा, ‘हम आपके आरोपों के आधार पर नहीं मान सकते कि इनमें से ज्यादातर पत्र फर्जी हैं। हम यह तय करने के शुरुआती चरण में है कि साक्ष्य इतने पर्याप्त हैं कि नहीं जिसके आधार पर प्रथम दृष्टया में पुलिस द्वारा याचिकाकर्ताओं को गिरफ्तार करने का मामला बनता हो।’

कार्यकर्ताओं की पैरवी कर रहे वकीलों ए.एम.सिंघवी, आनंद ग्रोवर, अश्विनी कुमार, राजीव धवन और प्रशांत भूषण ने यह साबित करने की पूरी कोशिश की कि उनलोगों को बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार की विचारधारा और आचरण के खिलाफ असहमति के लिए निशाना बनाया गया और आलोचनाओं पर लगाम कसने के लिए उनलोगों को गिरफ्तार किया गया। उनलोगों ने आरोप लगाया, ‘हमारी रेप्युटेशन को खराब करने के लिए पुणे पुलिस द्वारा प्रेस को सुनियोजित तरीके से गैर सत्यापित रिपोर्ट्स लीक की गई और मीडिया के जरिया ट्रायल करवाया गया।’

कार्यकर्ताओं के बचाव में दी गई इस दलील का मेहता ने विरोध किया, ‘उन्होंने कहा कि यह इतना गंभीर मामला है कि इस पर इस तरह व्यंग्य नहीं किया जाना चाहिए। जो कुछ मैं दिखा रहा हूं एक राष्ट्र के नाते हमें उस पर चिंतित होना चाहिए। गिरफ्तारियों का सरकार से उनकी असमहति से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है। लेकिन अगर कुछ व्यक्ति देश में कानून और व्यवस्था की व्यापक समस्या पैदा करने के इरादे से योजनाबद्ध तरीके से गतिविधियों के लिए किसी मशीनरी को उकसाते हैं तो हमें इस पर थोड़ा गंभीरता से सोचना चाहिए।’

मेहता ने गिरफ्तार किए गए कार्यकर्ताओं पर आरोप लगाया कि उनलोगों को कानून एवं व्यवस्था की समस्या पैदा करने के लिए माओवादियों से फंड मिला। कार्यकर्ताओं के खिलाफ शिकायत करने वाले व्यक्ति की ओर से सीनियर ऐडवोकेट हरीश साल्वे पेश हुए थे। उन्होंने कोर्ट से आग्रह किया कि जांच रिपोर्ट और दस्तावेजों के संवेदनशील हिस्से को गोपनीय रखना चाहिए क्योंक