आत्मा का सौंदर्य-सरसता

सरसता हृदय का शृंगार, ईश्वर का वरदान है। सहृदय मानव को ईश्वरीय गुणों से लबालब होते देखा गया है। सरस बनिए, सरसता का अभिप्राय कोमलता, मधुरता, आद्र्रता है। सहृदय व्यक्ति पर- दुःखकातर होता है। दूसरों के दुःखों को बंटाने में वह ईश्वरीय आनंद का अनुभव करता है, जिनके हृदय नीरस हैं, वे स्वयं और परिवार को ही नहीं अपने संपर्क में आने वाले हर प्राणी को दुःख प्रदान करते हैं। रस की बरसा सूखी धरती को भी हरियाली से भर देती है, फिर स्नेह जल से सींचे गए प्राणी आनंद से सराबोर क्यों नहीं हो सकते? गुरुदेव कहते हैं- जिसने अपनी विचारधाराओं और भावनाओं को शुष्क, नीरस और कठोर बना रखा है, उसने अपने आनंद, प्रफुल्लता और प्रसन्नता के भंडार को बंद कर रखा है। वह जीवन का सच्चा रस प्राप्त करने से वंचित रहेगा, आनंद-स्रोत सरसता की अनुभूतियों में है।

परमात्मा को आनंदमय बताया गया है। श्रुति  कहती है- रसो वै सः अर्थात् परमात्मा रसमय है। वह अपनी सरसता से सृष्टि का सिंचन करता है। हमारा भी यह स्वभाव बने कि हम अपने सरस आचार-विचार और व्यवहार से सृष्टा के इस उपवन को सिंचित कर उसे आनंद प्रदान कर सकें। रस-रूप परमात्मा को इस विशाल परिवार में प्रतिष्ठित करने के लिए लचीली, कोमल, स्निग्ध और सरस भावनाएं विकसित करनी चाहिए।

हमारा परिवार हमारी प्रथम कार्यस्थली है। आइए, यहीं से सरसता का बीजारोपण करें। बाल-वृद्ध-युवा परिजनों को स्नेह की डोरी में बांध सबके जीवन को आनंदमय बनाएं एवं स्वयं परमात्मा के उस अद्भुत गुण की लहरों से स्वयं भी आनंदित हों। नट अपने ऑंगन में कला खेलना सीखता है, आप हम अपने परिवार में प्रेम की साधना आरंभ करें। शिक्षा और दीक्षा से प्रियजनों के अंतःकरणों में ज्ञान-योति प्रवलित करें, उन्हें सत्-असत् का विवेक प्राप्त करने में मदद करें, किंतु अहंकार का त्याग कर विनम्र भाव से कुटुंबीजनों के हृदयस्थल का सिंचन करें। माली अपने ऊपर जिस बगीचे की जिम्मेदारी लेता है, उसे हरा-भरा बनाने, सर-सब्ज करने के लिए जी-जान से प्रयत्न करता है, यही -ष्टिकोण एक सद्गृहस्थ का होना चाहिए। यही कर्तव्य हमारा समस्त समाज एवं समस्त जगती के प्रति होना चाहिए।

सत्यनिष्ठा, सद्गुणों के प्रति रुचि, श्रमशीलता और स्वच्छता इन चार बहुमूल्य हीरों को यदि हम सरसता की चाशनी में डूबोकर परिवार, समाज और विश्व के समक्ष परोसेंगे तो उनके आनंद, उनकी स्वीकार्यता अनेक गुनी बढ़ जाएगी। जिस प्रकार लकड़ियों का बोझ रस्सी से बांधकर सुविधापूर्वक कोसों दूर तक ले जाया जा सकता है, उसी प्रकार आत्मीयता की डोर से बंधा परिवार एवं समाज उन्नति-पथ पर सुविधापूर्वक जा सकता है तथा सुसंगठित रह सकता है।

परिवार एवं समाज में सरसता विकसित करते समय हमें विवेक को नहीं भुलाना चाहिए। हमारा सरस व्यवहार कहीं मोह न बन जाए। कहीं नियंत्रण टूटने न पाए। सरसता के साथ-साथ हमें नियंत्रण का भी पक्षपाती होना चाहिए। निरंकुशता व्यक्ति को ही नहीं परिवार समाज एवं सृष्टि को भी तहस-नहस कर डालती है। नियंत्रण के द्वारा संयमी, नियमबद्ध, अनुशाासित सफल उन्नति के लिए कड़ा कदम उठाने की जहां आवश्यकता हो, वहां ठिठकना भी नहीं चाहिए। अंततः हृदय को कोमल, द्रवित होने वाला, दयालु, प्रेमी और सरस ही रखना चाहिए। संसार में जो सरसता का, सौंदर्य का अपार भंडार भरा है, उसे प्राप्त करना सीखना चाहिए। सरसता के सरोवर में ही मानव का हृदय-कमल खिलता है। आनंद का वर्षण होता है, उमंग की लहरें उठती हैं, सहयोग और सहकार के शंख-सीपियां मिलती हैं, प्रेम के मोती और रत्नों के भंडार प्राप्त होते हैं, हमारे परिवार एवं समाज ही नहीं, विश्वसुधा भी प्रफुल्लित हो उठती है।