किस किस को रोइए : अव्यवस्थाओं का हृदय स्पर्शी चित्रण

पुस्तक समीक्षा : विनय ओसवाल

Hdnlive | Book review : जिस भारत की आत्मा गांव में बसती है, आज शहरी होने के लिए वह अपने गांव-गवईंपन को बिसरा देने को, आकुल-व्याकुल है। इस आकुलता-व्याकुलता को शहरों की व्यवस्था अपने भीतर समेट ले, उससे पहले आबादी के विस्फोट की मार उसे पूरी तरह ध्वस्त कर देती है। ध्वस्त होती व्यवस्था के लिए कोई एक नहीं सभी संस्थाएं जिम्मेदार हैं। फिर चाहे वह व्यावसायिक होती शिक्षा हो या स्वास्थ्य सेवाओं का चरमराता ढांचा हो। नदियों में बढ़ता प्रदूषण हो या फिर कानून व्यवस्था के लिए जिम्मेदार पुलिस हो। ‘किस किस को रोइए’ (Kis Kis Ko Roiye)उन सब अव्यवस्थाओं का हृदय स्पर्शी चित्रण है और उसको करीने से परोसने का प्रयास है।

जल जीवन और स्मृतियां मुख्यतः तीन खण्डों सरोकार, जल जीवन और स्मृतियां शेष में हरिकृष्ण यादव(Harikrishna Yadav) ने उन्हें समेटा है। सरोकार खण्ड में कुल 25 लेख हैं, जल जीवन खण्ड में पांच तो स्मृति खण्ड में केवल तीन। हर लेख की गागर में लेखक ने चरमराती व्यवस्था की सागर जैसी दास्तान को समेटने का सफल प्रयास किया है। इस कर्म को करते हुए यादव जी ने अपने पाठकों की पत्तल में जो कुछ भी परोसा है उसका हरफ़-दर-हरफ़ उनके ठेठ गांव-गवईंपन की चुगली करता रहता है।

जीवन यात्रा में ‘सरोकारों’ के ऐसे मुकाम भी आते हैं कि आपके कदम खुद-ब-खुद थम जाते हैं। घर से निकले थे, सही वक्त पर कार्य स्थल पर पहुंचने के लिए और गृहकलेश से तंग मोहल्ले की महिला मदद की प्रत्याशा में राह रोक ले, आरजू करने लगे कि घर चलकर उसके मसले को निबटाये। अब एक दुविधा आपके सामने हिमालय की तरह खड़ी हो जाती है, दफ्तर जाऊं या इसके मसले को सुलझाऊँ? आखिर व्यक्ति है तो सामाजिक प्राणी, कदम मसला निबटाने को बरबस मुड़ जाते हैं।

बचपन में स्कूल से घर आते हुए खेत की मेड़ पर बस्ते रख कपड़े उतार कर कुश्ती लड़ते, कबड्डी खेलते, तालाब में तैराकी आदि करते बच्चों में लेखक एक खास ठेठपन, उनकी देसी भदेस बोली, सामूहिकता का संस्कार और मानवीय सरोकार देखता है। आज समाज में इन सब का क्षरण और बढ़ता अलगाव लेखक को बहुत पीड़ा देता है।

तरह-तरह की विसंगतियों से रू-ब-रू कराती है पुस्तक खेल के मैदान से शुरू और ऋण लेकर घी पीने तक चुनिंदा पच्चीस सरोकारों की दास्तान है- ‘किस किस को रोइए’। हर दास्तान के अपने-अपने किस्से हैं, जिनमें पुलिस के संरक्षण में फल-फूल रहे जेब कतरों और पीड़ितों की दास्तानगोई भी है, स्वास्थ और शिक्षा व्यवस्था जैसी जन सरोकारों से सम्बन्धित सेवाओं की चरमराती चूलों की चूँ-चूँ भी है, इन्ही चूँ-चूँ के बीच झांकती प्रशासनिक अकर्मण्यता और मिलिभगत भी है, गांव से शहरों को होने वाले अंधाधुंध पलायन और उन्हें पनाह देने के बदले सोना उगलती बंजर भूमि और कुकुर मुत्तों की तरह उगने वाले शैक्षणिक संस्थानों की हकीकत बयां करती तस्वीर भी है। तरह तरह के सरोकारों से होते हुए ‘जल जीवन’ और ‘स्मृति शेष’ तक तीन खंडों में सिमटी हर घटना में ठेठ गवईं-देहात की भीनी-भीनी गन्ध, पाठक को तरह-तरह की विसंगतियों से रू-ब-रू कराती है ‘किस किस को रोइए’ शीर्षक वाली पुस्तक।

जल जीवन खण्ड में दिल्ली से होकर बहने वाली यमुना के निरंतर सिकुड़ने की पीड़ा भी है। जबलपुर से होकर बहने वाली नर्मदा के धुआंधार जलप्रपात की तलहटी में सिक्के ढूंढती वृद्धा जो अपने ही बेटों के लिए बोझ बन चुकी है कि व्यथा भी है।

बचपन में अपने गांव दियरा बाजार में गोमती को तैर कर पार करने वाला लेखक आज उसी गोमती के काले पड़े पानी से हाँथ-मुँह धोने से भी परहेज करता है। कैसी बेबसी कैसी पीड़ा लेखक के कलम की स्याही भी आंसू बहाने लगती है।

अयोध्या और दियरा बाजार का रिश्ता त्रेता युग से ही है। पौराणिक कथानकों के अनुसार राम लंका विजय के बाद जब अयोध्या लौटे तो उन्होंने सीता के साथ दियरा बजार के घाट पर गोमती में स्नान किया था। आज उसी घाट पर गोमती का जल आचमन करने लायक भी नहीं है। लेखक की पीड़ा उसी के लेखन में चीख-चीख कर कह रही है- आज वही गोमती नाले में तब्दील हो गई है। पानी इतना गंदा है कि आचमन करना तो दूर पांव तक धोने की इच्छा न हो। लेखक स्मृति की मिट्टी कुरेदते हुए लिखते हैं- दो दशक पहले तक सुल्तानपुर से लखनऊ तक भले ही गोमती का पानी तकनीकी दृष्टि से भले ही प्रदूषित हो लेकिन दियरा घाट पर वह हमेशा स्वच्छ और पीने में मीठा ही होता था। पूरी नदी का काला रूप देखा तो बचपन की सारी यादें बेमानी लगने लगी। वह सत्ता के सामने तीखा सवाल खडा करता है- विकास का मतलब अगर प्राकृतिक संसाधनों का विनाश है तो ऐसे विकास का क्या फायदा? यह सवाल हर देशवासी के दिमाग मे कौंधना चाहिए।