हिंदू धर्म में शिवलिंग की पूजा का क्यों है विधान

शिवलिंग सम्पूर्ण वेदमय, समस्य देवमय, समस्त भूधर, सागर, गगनमिश्रित सम्पूर्ण विश्वब्रह्माण्डमय माना जाता है। वह शिवशक्तिमय, त्रिगुणमय और त्रिदेवमय भी सिद्ध होने से सबके लिए उपास्य है। इसीलिये सृष्टि के प्रारम्भ से ही समस्त देवता, ऋषि, मुनि, असुर, मनुष्यादि विभिन्न ज्योतिर्लिंगों, स्वयंभूलिंग, मणिमय, रत्नमय, धातुमय, मृण्मय, पार्थिव तथा मनोमय आदि लिंगों की उपासना करते आये हैं। स्कन्दपुराण के अनुसार इसी उपासना से इन्द्र, वरूण, कुबेर, सूर्य, चंद्र आदि का स्वर्गाधिपत्य, राजराजाधिपत्य, दिक्पालपद, लोकपालपद, प्राजापत्य पद तथा पृथ्वी पर राजाओं के सार्वभौम चक्रवर्ती साम्राज्य की प्राप्ति होती आयी है। मार्कण्डेय, लोमश आदि ऋषियों के दीर्घायुष्टव, नैरुज्य, ज्ञान−विज्ञान तथा अणिमादिक अष्ट ऐश्वर्यों की सिद्धि का मूल कारण भी योगयोगेश्वर भगवान शंकर के मूल प्रतीक लिंग का विधिवत पूजन ही रहा है।

भारत वर्ष में ‘पार्थिव’ पूजा के साथ ही विशेष स्थानों में पाषाणमय शिवलिंग प्रतिष्ठित और पूजित होते हैं। ये अचल मूर्तियां होती हैं। वाणलिंग या सोने−चांदी के छोटे लिंग जंगम कहलाते हैं। इन्हें प्राचीन पाशुपत−सम्प्रदाय एवं लिंगायत−सम्प्रदाय वाले पूजा के व्यवहार में लाने के लिए अपने साथ भी रखते हैं। लिंग विविध द्रव्यों के बनाये जाते हैं। गरूण पुराण में इसका अच्छा विस्तार है। उसमें से कुछ का संक्षेप में परिचय इस प्रकार है।

1. गन्धलिंग दो भाग कस्तूरी, चार भाग चंदन और तीन भाग कुंकुम से बनाये जाते हैं। शिवसायुज्यार्थ इसकी अर्चा की जाती है।

2. पुष्पलिंग विविध सौरमय फूलों से बनाकर पृथ्वी के आधिपत्य लाभ के लिए पूजे जाते हैं।

3. गोशकृल्लिंग, स्वच्छ कपिल वर्ण की गाय के गोबर से बनाकर पूजने से ऐश्वर्य मिलता है। अशुद्ध स्थान पर गिरे गोबर का व्यवहार वर्जित है।

4. बालुकामयलिंग, बालू से बनाकर पूजने वाला विद्याधरत्व और फिर शिवसायुज्य प्राप्त करता है।

5. यवगोधूमशालिजलिंग, जौ, गेहूं, चावल के आटे का बनाकर श्रीपुष्टि और पुत्रलाभ के लिए पूजते हैं।

6. सिताख-डमयलिंग मिस्त्री से बनता है, इसके पूजन से आरोग्य लाभ होता है।

7. लवणजलिंग हरताल, त्रिकटु को लवण में मिलाकर बनता है। इससे उत्तम प्रकार का वशीकरण होता है।

8. तिलपिष्टोत्थलिंग तिल को पीसकर उसके चूर्ण से बनाया जाता है, यह अभिलाषा सिद्ध करता है।

9−11. भस्मयलिंग सर्वफलप्रद है, गुडोत्थलिंग प्रीति बढ़ाने वाला है और शर्करामयलिंग सुखप्रद है।

12. वंशांकुरमय (बांस के अंकुर से निर्मित) लिंग वंशकर है।

13−14. पिष्टमय विद्याप्रद और दधिदुग्धोद्भवलिंग कीर्ति, लक्ष्मी और सुख देता है।

15−18. धान्यज धान्यप्रद, फलोत्थ फलप्रद, धात्रीफलजात मुक्तिप्रद, नवनीतज कीर्ति और सौभाग्य देता है।

19−24. दूर्वाकाण्डज अपमृत्युनाशक, कर्पूरज मुक्तिप्रद, अयस्कान्तमणिज सिद्धिप्रद, मौक्तिक सौभाग्यकर स्वर्णिनर्मित महामुक्तिप्रद, राजत भूतिवर्धक है।

25−33. पित्तलज तथा कांस्यज मुक्तिद, त्रपुज, आयस और सीसकज शत्रुनाशक होते हैं। अष्टधातुज सर्विसद्धिप्रद, अष्टलौहजात कुष्ठनाशक, वैदूर्यज शत्रुदर्पनाशक और स्फटिकलिंग सर्वकामप्रद हैं।

परंतु ताम्र, सीसक, रक्तचंदन, शंख, कांसा, लोहा, इन द्रव्यों के लिंगों की पूजा कलियुग में वर्जित है। पारे का शिवलिंग विहित है यह महान ऐश्वर्यप्रद है। लिंग बनाकर उसका संस्कार पार्थिव लिंगों को छोड़कर प्रायः अन्य लिंगों के लिए करना पड़ता है। स्वर्णपात्र में दूध के अंदर तीन दिनों तक रखकर फिर ‘त्र्यम्बकं यजामहे’ इत्यादि मंत्रों से स्नान कराकर वेदी पर पार्वतीजी की षोडशोपचार से पूजा करनी उचित है। फिर पात्र से उठाकर लिंग को तीन दिन गंगाजल में रखना होता है। फिर प्राण प्रतिष्ठा करके स्थापना की जाती है।

पार्थिवलिंग एक या दो तोला मिट्टी लेकर बनाते हैं। ब्राह्मण सफेद, क्षत्रिय लाल, वैश्य पीली और शूद्र काली मिट्टी ग्रहण करते हैं। परंतु यह जहां अव्यवहार्य हो, वहां सामान्य मृत्तिका का प्रयोग भी किया जा सकता है। लिंग साधारणतया अंगुष्ठप्रमाण का बनाया जाता है। पाषाणादि के लिंग इससे बड़े भी बनते हैं। लिंग से दूनी वेदी और उसका आधा योनिपीठ का मान होना चाहिए। योनिपीठ या मस्तकादि अंग बिना लिंग बनाना अशुभ है।

लिंगमात्र की पूजा में पार्वती−परमेश्वर दोनों की पूजा हो जाती है। लिंग के मूल में ब्रह्मा, मध्य देश में त्रैलोक्यनाथ विष्णु और ऊपर प्राणस्वरूप महादेव स्थित हैं। वेदी महादेवी हैं और लिंग महादेव हैं। अतः एक लिंग की पूजा में सबकी पूजा हो जाती है।