साहित्य अकादेमी में विश्वनाथ त्रिपाठी ने ‘समय कोरी दीवार’ पुस्तक का किया लोकार्पण

हरिकृष्ण यादव | hdnlive

नई दिल्ली। वरिष्ठ आलोचक, कवि और गद्यकार विश्वनाथ त्रिपाठी बुधवार को ‘समय कोरी दीवार’ का पुस्तक का लोकार्पण साहित्य अकादेमी के सभा कक्ष में किया। इस पुस्तक के संपादक जनसत्ता के एसोसिएट एडिटर सूर्यनाथ सिंह हैं। यह पुस्तक उपेद्र कुमार की कविता यात्रा के सफर पर कई वरिष्ठ लेखकों के अनुभव की विस्तृत टिप्पणी के साथ संपादक ने पुस्तक की खूबियों को सहज भाषा में पाठकों तक पहुंचाने की कोशिश की है। इस अवसर पर प्रो. ओम प्रकाश सिंह, श्री लीलाधर मंडलोई, डॉ. बली सिंह और देव शंकर नवीन ने उपेंद्र कुमार और उनकी कविताओं पर अपने-अपने विचार सभी उपस्थित गणमान्य के बीच साझा किए।

मिजाज से आँखें मिलाकर अपनी अलग राह बनायी है

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उपेन्द्र कुमार पर केन्द्रित इस किताब का प्रयोजन सीधा-सा है। एक अपेक्षितचर्चा से वंचित रह गये कवि की अहमियत को रेखांकित करना। इस सवाल काजवाब तलाश करना है कि एक ऐसा कवि, जो करीब साढ़े चार दशक से लिख रहा है, जिसके दर्जन भर से अधिक संग्रह हैं, निरन्तर कविता में नये प्रयोग कर रहा है, जिसने कविता के हर मिजाज से आँखें मिलाकर अपनी अलग राह बनायीहै, वह हिन्दी आलोचना की दृष्टि में कैसे उल्लेखनीय ढंग से नहीं चढ़ पाया।इसके कुछ कारण हालांकि स्पष्ट हैं। इस किताब का प्रयोजन उन कारणों कोरेखांकित करना नहीं है। इस किताब का मकसद केवल उपेन्द्र कुमार की कविताके कुछ रंग-रेशों से परिचित कराना है।

कोई भी रचनाकार अपने समय के प्रभावों से बचनहीं सकता

उपेन्द्र कुमार का पहला संग्रह 980 में आया था-‘बूढ़ी जड़ों का नवजातजंगल’ । जाहिर है, वे इसके पहले से लिखते रहे होंगे। संग्रह निकालने का उद्यमकोई रचनाकार तभी करता है, जब उसे भरोसा हो जाये कि उसकी रचना अबलोकवृत्त को देने लायक बन चली है।… चूँकि रचनाकार की बनावट को समझनेके लिये उसके समय को समझने का चलन रूढ़ है, और यह पूरी तरह गलत भीनहीं है, इसलिए उपेन्द्र कुमार की कविताओं को समझने का एक सूत्र उनकासमय भी हो सकता है। कोई भी रचनाकार अपने समय के प्रभावों से बच नहीं सकता। उनकी शुरुआती कविताओं को खुरचकर वह प्रभाव देखा भी जासकता है। वह दौर साठोत्तरी झंझावातों का दौर था। साहित्य खुद अपना नयास्वरूप तलाश रहा था। तमाम विमर्श और सिद्धान्त कसौटी पर कसे जा रहेथे। राजनीतिक प्रतिरोध का स्वर प्रखर हो उठा था। कविता बयानबाजियों औरनारों की शक्ल में उतरने लगी थी। यहाँ तक कि कविता ने ख़ुद को अकविता हदें शुरू कर दिया था। फिर आपातकाल लगा, तोबलाब भाषा का लए औ तीखा हुआ। हालांकि उस दौर में भी लगातारअसल स्वरूप और उसके वास्तविक प्रयोजन को लेकर विमर्श हो रहेचिहित की जा रही थीं। ‘सप्तकों’ ने एक अलग धारा बहाका इन्द्र स्पष्ट था।… ऐसे दौर में उपेन्द्इस या उस धारा के साथ हो लेते, तो शायद पहचान का संकट नउन्होंने अपनी अलग पगडंडी बनायी। हालांकि न उनमें विद्रोह काहै।

अगर केवल इतने भर वक्तव्य को पकड़ लें, तो उपेन्द्र कुमार बड़ी आसानीसे अस्तित्ववादी धारा के हवाले किये जा सकते हैं। मगर इसके आगे वे कहते-
कविता मेरे लिये वर्तमान व्यवस्था से लड़ने के लिये व्यवस्थाअदत्त एकहथियार है, जिसका प्रयोग मैं व्यवस्था के काँटों भरे जंगल को काटनेके लिये तलवार की तरह करता हूँ. तो कभी व्यवस्था द्वारा चुराक्षितप्रासादों में रहने वालों पर गोलियाँ बरसाने के लिये मशीनगन की तरह…

यह उनका दूसरा छोर है। अगर केवल इस वक्तव्य को पकड़ लें, तो उपेन्द्रकुमार सशत्र क्रान्ति के पक्षधर ठहराये जा सकते हैं। मगर किसी भी रचनाकारका मूल्यांकन इस तरह किसी एक छोर को पकड़कर करना सदा जोखिम भराकाम होता है। एक तरह से उसके साथ अन्याय भी। उपेन्द्र कुमार की कविताइन दोनों छोरों के बीच में है। किसी एक छोर को पकड़कर उसे समझा ही नहींजा सकता। वह अपने अर्थ छिपा लेगी, धुँधला, गड्डमडूड कर देगी। ऊपर जोदो वक्तव्य दिये गये हैं, वे उनके पहले काव्य-संग्रह ‘बूढ़ी जड़ों का नवजात जंगल’की भूमिका से हैं। इस तरह इन वकतव्यों में उस समय का मिजाज भी समझा जासकता है। हालांकि उस दौर की पूरी तस्वीर संग्रह के नाम से ही प्रकट हो जातीहै। केवल संग्रह के शीर्षक के अर्थ खोलें तो संग्रह की कविताओं का मिजार्जसमझ में व जाता है। आठवें दशक में अगर कवि को पुरानी, जर्जर मान लीगयी जड़ों में न सिर्फ कल्ले फूटते नजर आ रहे हैं, बल्कि उनसे एक जंगल हीबन गया है, तो समझा जा सकता है कि समय कितना विकट होगा। बूढ़ी जड़ेंकिसकी हैं! सामन्तवाद की, राजशाही की, मध्यकालीन बर्बर मानसिकता की याउन तमाम अस्वीकृत प्रवृत्तियों की मिली-जुली जड़ों का वह गुंजलक है।… अर्थखोलेंगे, तो कई खुलेंगे। उसमें इतिहास भी खुलेगा, सभ्यताएँ भी खुलेंगी, सत्ताओंके धतकरम भी खुलेंगे।

मगर इतने भर से उपेन्द्र कुमार की कविता का मिजाज शायद पूरी तरहन खुले। इसके लिये उनका एक और वक्तव्य देख लेना होगा-

मेरी समझ में कविता जीवन से अलग कोई चीज नहीं होती।

उनकी कविता का असली सूत्र यहाँ मिलता है। यह वक्तव्य उनके संग्रह“अपना घर नहीं आया” की भूमिका से है। यह उनका गजल-संग्रह है।

उपेन्द्र कुमार की कविता एक मुकम्मल मनुष्य की तलाश में है

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दरअसल, उपेन्द्र कुमार की कविता मनुष्य की पक्षधर है। उसमें जीवनकी सुन्दरता को सहेजने की जद्दोजहद है। हालांकि हर रचनाकार मनुष्य को हीनये सिरे से रचने का प्रयास करता है, वह थोड़ा बेहतर मनुष्य बनाने का जतनकरता है। मगर भेद मनुष्य को देखने की दृष्टि से पैदा होता है। कौन मनुष्यको कहाँ से और किस रूप में देख रहा है, प्रभाव उससे पैदा होता है। किसीको मनुष्य का बाहरी संघर्ष बड़ा लगता है, तो किसी को भीतरी। झगड़े सारेदृष्टि की ही उपज तो हैं। उसी से रचनाकार भी स्वीकृत और अस्वीकृत होतेहैं। उपेन्द्र कुमार की कविता एक मुकम्मल मनुष्य की तलाश में है। उसकी दृष्टिमनुष्य के बाहरी संघर्षों पर है, तो उसके भीतरी छन्द्रों पर भी। इसलिए उपेन्द्रकुमार जीवन के सवालों से जूझते भी नजर आते हैं। उनके यहाँ गूढ़ दार्शनिकप्रश्न भी उभरते हैं। वे केवल व्यवस्थागत विसंगतियों के विरोध में मुट्ठी नहींतानते, मनुष्य की क्षुद्रताओं पर क्षुब्ध भी होते हैं। इसीलिए उनकी कविता में प्रेमके सघन कोमल तत्तु हैं, प्रकृति के मोहक बिम्ब हैं, जीवन की चपल-चुलबुलीआकांक्षाएँ हैं, तो विद्रोह का उद्दाम स्वर भी। उपेन्द्र कुमार की विचारदृष्टि व्यापकहै। किसी एक खाँचे में आबद्ध नहीं। वहाँ तनी हुई मुट्ठी है, तो गांधी कासविनय असहयोग भी-

दुग्हारा नाम उकेर

अभी मैं वहाँ से लौटा ही

औँचक आकर गिरा

पेज- छह

व्यवस्था के विरोध में मुखर हो उठते हैं

और जगत के अर्थ खोलने का प्रयास करते हैं। दिखाने की कोशिश करते हैं कि इतिहास कोई गयी बात नहीं, उसके जरिये समकाल को दुरुस्त किया जासकता है। पौराणिक घटनाएँ जीवन की विसंगतियों को संगति देने में मददगार होसकती हैं। उपेन्द्र कुमार का यकीन दरअसल, राजनीतिक व्यवस्था में सुसंगति सेही जीवन की सुन्दरता को साधने में है, इसलिए वे बार-बार सत्ता प्रतिष्ठान परअँगुली उठाते नजर आते हैं। व्यवस्था के विरोध में मुखर हो उठते हैं। जब-जबसत्ता प्रतिष्ठानों को राजधर्म सिखाने की बात आती है, समाज को सदाचारसमझाने की जरूरत पड़ती है, तो मिथकीय दृष्टान्त एक सशक्त औजार साबितहोते हैं। इसलिए अकारण नहीं कि हर समय में रचनाकार अपने समय की उधड़ीसीवन को सिलने के लिये पौराणिक कथाओं और ऐतिहासिक चरित्रों को अपनीरचना का माध्यम बनाते रहे हैं। हर बड़े रचनाकार ने इस औजार का उपयोगकिया है। उपेन्द्र कुमार अगर महाभारत के प्रसंगों को उठाते हैं, तो वे भी वहीकरते हैं। वायु पुराण के जरिये जीवन के तत्त्वों को खोलने का प्रयास करते हैं,तो यही करते हैं। इस तरह उनकी कविता का प्रभाव बढ़ जाता है। हालांकिमिथकों और ऐतिहासिक पात्रों को अपने समय में उतारना रचनाकार की मेधाकी बड़ी चुनौती होती है। वह कैसे उन्हें साधता है, यह उसकी प्रखर प्रतिभा सेही सम्भव हो पाता है। इसमें उपेन्द्र कुमार निश्चित रूप से सफल हैं, इसलिएउनकी मिथकीय नानार्थकता वाली कविताएँ सर्वाधिक पसन्द की जाती रही हैं।

बिलकुल देसी धज में, अपने बिलकुल ठेठ भोजपुरिया संज्ञा केसाथ इसके पहले कविता में नहीं आयी

उपेन्द्र कुमार की कविता में मामूली चीजों के बड़े बारीक ब्योरे मिलते हैं।उनकी दृष्टि छोटी-छोटी चीजों, चर्चा से लगभग बाहर रह गयी चीजों पर भीजाकर न सिर्फ टिक जाती है, बल्कि कविता में जैसे उनका परिष्कार करते हैं,नये सिरे से उन्हें पहचान देते हैं। इसके उदाहरण में उनकी केवल दो कविताओंका जिक्र काफी होगा-लउर (लाठी) और सत्तू। इन दोनों विषयों पर उपेन्द्रजी से पहले शायद ही किसी की नजर गयी हो। उनसे पहले शायद ही किसी ने इन्हेंअपनी कविता का विषय बनाया और इतने विस्तार से लिखा हो। जब लउर कीचर्चा करे हैं, को केदारजी की कुदाल कविता की याद सहज ही हो आती है।मगर लाठी अपने बिलकुल देसी धज में, अपने बिलकुल ठेठ भोजपुरिया संज्ञा केसाथ इसके पहले कविता में नहीं आयी।

उपेन्द्र कुमार की एक बड़ी विशेषता उनका देशज अन्दाज है। बड़ीसहजता से वे देशी उपादानों को शास्त्रीय विमर्श के बीच टिका देते हैं और वेध्यान खींचना शुरू कर देते हैं। प्रसंगवश यह भी देखने की बात है कि जिस दौरमें उपेन्द्र कुमार ने लिखना शुरू किया, वह आधुनिकता के नकार का भी दौर है।उत्तर आधुनिकता के उभार का दौर है। स्थानीयता, जनपदीय चेतना के केन्द्र मेंआने का दौर है। इस तरह उपेन्द्र कुमार की कविता में स्थानीयता की चमकदारउपस्थिति और आधुनिकता के खोखलेपन का विरोध उन्हें उत्तर आधुनिक कीकतार में खड़ा कर देता है।

मेरा ख़याल है, उपेन्द्र कुमार की कविताओं को खोलने के लिये इतना भरसूत्र काफी है। बाकी कोण इस पुस्तक के लेखों में खुलेंगे।

इस किताब में कुल सोलह लेख हैं। इनमें विजय बहादुर सिंह, ए. अरविन्दाक्षन,जानकी प्रसाद शर्मा, देवशंकर नवीन, ज्योतिष जोशी, रणजीत साहा, भरत प्रसादऔर निरंजन कुमार यादव जैसे कविता के मर्मज्ञ आलोचकों की टिप्पणियाँ हैं, तोमदन कश्यप, आनन्द कुमार सिंह, दिविक रमेश, राकेश रेणु, रामप्रकाश कुशवाहा,भरत प्रसाद और निशान्त जैसे सुपरिचित कवियों की टिप्पणियाँ भी हैं। महेशदर्पण जैसे कथाकार के सुचिन्तित विचार भी हैं।

किताब के दूसरे हिस्से ‘बतकही के बीच?” में साक्षात्कार के माध्यम सेउपेन्द्र कुमार की कविता पर दूरदर्शन के कार्यक्रम में मदन कश्यप से बातचीतकरते हुए नामवर सिंह और अतुल सिन्हा से बतकही करते हुए विश्वनाथ त्रिपाठीके विचार हैं। इसके अलावा “सूत्र सम्मतियाँ” खंड में अज्ञेय, भवानी प्रसाद मिश्रसे लेकर अमृता प्रीतम, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव आदि अनेक वरिष्ठ रचनाकारोंकी छोटी-छोटी कुंजीनुमा टिप्पणियाँ हैं, जिनसे उपेन्द्र कुमार की कविता का मर्मखुलता है। उनके विविध आयाम सामने आते हैं।

यह किताब कुछ देर से आ पाई है। पिछले साल आती, तो उपेन्द्रजी केजीवन के पचहत्तरवें पड़ाव पर सुखद उपहार होती। मगर अभी इतना विलम्ब भीनहीं। पचहत्तर पूरे होने के बाद ही सही।

किताब अब आपके सामने है। जैसी भी बनी है, कुछ किताब बोलेगी, कुछआप बोलेंगे। इस तरह उपेन्द्र कुमार की कविताएँ बोलेंगी, अपने मर्म खोलेंगी।

-सूर्यनाथ सिंह

‘प्रकाशन संस्थान’ ने इस पुस्तक को प्रकाशित किया है। पुस्तक का मूल्य 450 रुपए है।